मायावती ने समाजवादी पार्टी से दूरी तो बना ली, पर असल कारण क्या थे ?


उत्तर प्रदेश में भाजपा को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिल रही है। पिछले पांच वर्षों में बीजेपी फर्श से अर्श पर तो विरोधी अर्श से फर्श पर आ गए हैं। समाजवादी पार्टी हो या फिर कांग्रेस का जनाधार लगातार खिसकता रहा है। मुलायम के बाद अखिलेश के लिए समाजवादी पार्टी को संभाले रखना 'लोहे के चने चबाना' जैसा साबित हो रहा है। वहीं कांग्रेस में चिंता इस बात की है कि उसका तुरूप का इक्का प्रियंका वाड्रा का ग्लैमर भी लोकसभा चुनाव में नहीं चला। कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ने की बजाए कम हो गया। यही हाल समाजवादी पार्टी का भी रहा। सपा का पिछड़ा वोट बैंक कमजोर हो रहा है। अखिलेश की तो काबलियत पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। उनके सभी प्रयोग असफल हो रहे हैं।


उधर, बसपा के हालात कुछ अलग हैं। बीएसपी की लगातार तीन करारी हार के बाद भी उसका कोर वोटर बहनजी के साथ खड़ा है। बसपा सुप्रीमो मायावती की अखिलेश से दूरी बनाने की बड़ी वजह मुस्लिम वोटर बताए जा रहे हैं जो मुलायम के समय तक सपा का मजबूत वोट बैंक हुआ करता था तो कभी−कभी बसपा के प्रति भी इनका (मुसलमानों का) झुकाव देखने को मिलता रहा है। बहनजी को भरोसा इस बात का है कि यदि समाजवादी पार्टी कमजोर होती दिखेगी तो मुलसमाना वोटर बसपा की तरफ आने में देर नहीं करेंगे। एक बार ऐसा हो गया तो दलित−मुस्लिम वोटरों के सहारे मायावती लम्बे समय तक सत्ता की सियासत कर सकती हैं। मुस्लिम मतदाताओं की वोटिंग का ट्रैंड भी यही रहता है कि वह उस प्रत्याशी के पक्ष में वोटिंग करते हैं जो भाजपा को हरा रहा होता है। मुसलमानों की इस खासियत का बहनजी सियासी फायदा उठाना चाहती हैं। कुछ माह के भीतर राज्य में 12 विधानसभा सीटों पर होने वाले विधान सभा उप−चुनाव में बसपा सुप्रीमो इस फार्मूले को परखना चाहती हैं।

 

बसपा की इस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा में केवल 19 सीटें हैं। बसपा ने 2017 के विधान सभा चुनाव में सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ा था। वहीं कांग्रेस−सपा गठबंधन में सपा को 47 और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर संतोष करना पड़ा था, जबकि उस समय सपा सत्ता में थी और 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे 229 सीटें मिली थीं। बसपा बदली रणनीति के तहत पहले उप−चुनाव में उतरेगी और सफलता मिली तो इस फार्मूले को बसपा अगले विधानसभा चुनाव में भी सोशल इंजिनियरिंग के रूप में आगे बढ़ाएगी। बसपा की कोशिश यही होगी कि मुस्लिम नेताओं को ज्यादा संख्या में टिकट दिया जाए। इसीलिए मायावती ने सभी सांसदों−विधायकों और जिला इकाई को उनके क्षेत्र में आने वाली सभी विधानसभा सीटों पर मेहनत करने और समीकरणों को तलाशने के लिए कह रखा है। अगर बसपा, समाजवादी पार्टी के इस खास वोटबैंक पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है तो उसका रास्ता बहुत हद तक आसान हो जाएगा।


सपा से गठबंधन के बाद बसपा को नई ऊर्जा मिली है उसके सहारे वह 2022 में सत्ता में वापसी का सपना देखने लगी है। इसके लिए बसपा ने बीजेपी की तर्ज पर अभी से तैयारियां शुरू कर दी हैं। बसपा से जुड़े नेताओं को भी विश्वास है कि अगर जमीन पर काम किया जाए तो समाजवादी पार्टी के खिसकते जनाधार को बसपा के पाले में खींचा जा सकता है।

 

गौरतलब है कि इस लोकसभा चुनाव में भले ही सपा की सीटें 2014 के बराबर रही हों लेकिन उसका जनाधार जबरदस्त तरीके से गिरा है, जिसका फायदा बसपा को मिल सकता है। सपा का 2014 लोकसभा चुनाव के मुकाबले 2019 में वोट करीब पांच प्रतिशत कम हुआ है। राजनैतिक पंडितों का भी कहना है कि समाजवादी पार्टी जितना कमजोर होगी उतनी ही मजबूती बसपा को मिलेगी। बसपा के पास उनका अपना वोटबैंक अब भी बरकरार है। इस वोट बैंक में मुस्लिम वोटों का भी तड़का लग जाए तो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए हालात 2012 और उससे पूर्व जैसे हो सकते हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 41 सीटों पर संतोष करना पड़ा था, जबकि 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली बसपा को 2012 में सत्ता विरोधी लहर के बाद भी 80 सीटें मिली थीं। वहीं कांग्रेस को 29 सीटें मिली थीं।