मोदी सरकार के सामने कई हैं आर्थिक चुनौतियाँ, तेजी से हल निकालना होगा

मोदी सरकार को अपने दूसरे कार्यकाल में बहुत अधिक आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पिछले पांच वर्षों के दौरान आर्थिक वृद्धि 8.2 फीसदी से घटाकर 5.8 फीसदी पर आ गयी है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और खाद्य मूल्य स्फीति नकारात्मक स्थिति में आ गए हैं। पिछले तीन वर्षों में चालू खाते का घाटा 0.6 फीसदी से बढ़कर जीडीपी का 2.06 फीसदी हो चुका है। जीडीपी के अनुपात में पूंजीगत निवेश कम होता जा रहा है। निजी निवेश व्यय में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। निर्यात से आयात अधिक होता जा रहा है। लोगों की क्रय शक्ति कम होती जा रही है जिससे उपभोक्ता उत्पादों, वाहनों की बिक्री भी घटती जा रही है। निजी खपत में गिरावट, निवेश और निर्यात में कमी की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बिगड़ती जा रही है। देश में युवा आबादी अधिक है।


पिछले वित्तीय वर्ष में विदेशों से अपने देश में पैसा भेजने वाले नागरिकों में भारतीय नागरिक ही पहले नंबर पर थे। हाल के वर्षों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है। रोजगार की समस्या एक बहुत बड़ी समस्या है। अमेरिकी आईटी कंपनियां भारतीयों की छंटनी कर रही हैं। विश्व में व्यापार युद्ध की स्थिति बनी हुई है। अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वार का असर इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ यूरोप और एशिया की अधिकाँश अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ रहा है। विकसित देशों की संरक्षणवादी नीतियों की वजह से हमारे देश पर भी नकारात्मक असर पड़ा है। जी-20 देशों में हमारा देश सबसे गरीब देश है। सरकार के सामने कच्चे तेल से निपटने की भी चुनौती है। हमारा देश कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश है। देश में 80 प्रतिशत कच्चा तेल आयात होता है। कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से चालू खाते का घाटा बढ़ता ही जा रहा है। कच्चे तेल के महंगे होने से आयात, निर्यात से काफी ज्यादा हो रहा है। इसके कारण चालू खाते का घाटा लगातार बढ़ रहा है।

 

बजट घाटा सकल घरेलू आय के अनुपात में काफी बढ़ गया है। बजट घाटे का असर मुद्रास्फीति पर पड़ रहा है। चालू खाते का अधिक घाटा, ऊंचे राजकोषीय घाटे और ऊंची मुद्रास्फीति से देश की समूची अर्थव्यवस्था भी डांवाडोल हो गई। केंद्र और राज्यों के बजट का बड़ा भाग सिर्फ ब्याज चुकाने में ही खर्च हो रहा है। उद्योगों के विकास की गति मंद पड़ी हुई है। उद्योगपतियों को अनेक प्रलोभनों के बाद भी औद्योगिक उत्पादन में आशातीत वृद्धि नहीं हो पा रही है। छोटे और मझले उद्योगों को वास्तव में जितना प्रोत्साहन चाहिए उतना नहीं मिल रहा है। सरकार की नीतियों में दूरदर्शिता का अभाव रहा है। छोटे और मझोले स्तर के कारोबार को सरकार के प्रोत्साहन और राहत की खुराक की आवश्यकता थी जो उन्हें मिलनी चाहिए थी, लेकिन इनके प्रति सरकार के असहायक रवैये के कारण छोटे और मध्यम स्तर के उद्योग अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद भी प्रगति नहीं कर सके हैं। कभी-कभी सरकार की नीतियों में अचानक परिवर्तन होने से जैसे विदेश व्यापार नीति, आयात-निर्यात नीति, औद्योगिक नीति, कराधान नीति, कर्जमाफी, सबसिडी में कटौती इत्यादि सरकारी नीतियों से छोटे और मध्यम स्तर के कारोबारियों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

मोदी सरकार ने वादा किया था कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी लेकिन अभी तक किसानों कि आय में बढ़ोतरी नहीं हुई है। हमारे देश में पॉलिसी पैरालिसिस की वजह से बहुत सारी ढाँचागत परियोजनाएं ठप पड़ गयीं और बैंकों से लिया गया कर्ज गैर निष्पादित आस्तियों में तब्दील हो गया। सार्वजनिक बैंकों की माली हालत ठीक नहीं है। कुछ सार्वजनिक बैंक आंकड़ों की जादूगरी की वजह से मजबूत दिखते हैं। लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आईएलएफएस) को दिए गये कर्ज गैर निष्पादित परिसंपत्तियों में तब्दील होने से और बैंकों के एनपीए में इतनी अधिक वृद्धि से देश के आर्थिक हालात 2008 की वैश्विक गिरावट जैसे ही हो गये हैं।

आज देश की वित्तीय प्रणाली 75 फीसदी बैसाखी के सहारे खड़ी है। लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आईएलएफएस) के संकट से सभी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) नकदी संकट से गुजर रही हैं। आईएलएफएस के डिफ़ॉल्ट और एनबीएफसी सेक्टर में आए संकट का असर डेट म्युच्यूअल फंडों पर भी पड़ रहा है। देश में धीरे-धीरे आर्थिक मंदी आ रही है। आर्थिक मंदी से अर्थव्यवस्था की विदेशी भुगतान प्रतिबद्धताएं पूरी नहीं हो सकेंगी जिससे आर्थिक समस्याएँ और बढ़ सकती हैं। यदि नयी सरकार ने सख्ती के साथ त्वरित कदम नहीं उठाए तो आने वाले दिनों में हालात बदतर हो सकते हैं। दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी हमारे देश की आर्थिक चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था बुनियादी संरचनाओं की कमी, अकुशल प्रशासन, बैंकों की खस्ता हालत और बेरोजगारी से जूझ रही है। जीडीपी के 70 फीसदी के बराबर कर्ज, सबसिडी का भारी बोझ जैसी कई चुनौतियां हैं। हर तरह के आर्थिक संकेतों से अब यह साफ़ हो गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् के सदस्य रथिन रॉय ने भी कहा है कि देश की अर्थव्यवस्था गहरे संकट की तरफ जा रही है और आर्थिक मंदी भारतीय अर्थव्यवस्था को घेर लेगी।


देश की नयी सरकार को अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटने के लिए और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए त्वरित और सख्त कदम उठाने होंगे। वित्तीय अनुशासन, रोजगार सृजन को प्राथमिकता देनी होगी और साथ ही इंडस्ट्रियल ग्रोथ, क्रेडिट ग्रोथ और हमारे देश के सार्वजनिक बैंक जोकि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, इन दिनों गैर निष्पादित आस्तियों की समस्या से ग्रस्त हैं। एनपीए बैंक, समाज और अर्थव्यवस्था पर भार हैं। एनपीए से परेशान बैंक अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गए हैं। एनपीए से बैंकों की लोन देने की क्षमता घट जाती है, मुनाफ़े में कमी आती है और नकदी प्रवाह घट जाता है। यदि इस एनपीए राशि की वसूली हो जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इज़ाफा, लाखों लोगों को रोज़गार, ब्याज दरों में कटौती, अवसंरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मजबूती और विकास को गति देना संभव हो सकेगा। बैंकों के प्रशासन को बेहतर बनाने की पहल वाले मुद्दों पर विशेष ध्यान देना होगा। कब तक सरकार सार्वजनिक बैंकों में पूँजी डालती रहेगी ? बैंकिंग सेक्टर में कॉर्पोरेट गवर्नेंस का स्तर सुधारने पर फोकस करना होगा। बैंकों के निजीकरण और मर्जर की बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। प्रौद्योगिकी और मानव संसाधनों में सही निवेश करके ही बैंकों की परिचालन क्षमता में सुधार किया जा सकता है। वित्त मंत्रालय और सम्बंधित मंत्रालयों में अधिकारियों की नियुक्तियां और उन्हें बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं में प्रशिक्षण प्रदान करने की एक व्यवस्थित प्रणाली होनी चाहिए।

 

चालू खाते के घाटे को पाटने के लिए अधिक विदेशी निवेश की जरूरत है। अब सरकार को बजट संतुलित करने के लिए लोकलुभावन योजनाओं पर लगाम लगानी होगी। सरकार को सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी करनी होगी। रिजर्व बैंक को अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए ब्याज दरों में कमी करनी होगी। आर्थिक वृद्धि और निवेश में तेजी लाने के लिए सरकार द्वारा उद्योगों को मौद्रिक प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए विचार करना होगा और साथ ही देश में उचित और पारदर्शी व्यावसायिक परिवेश का निर्माण करना होगा। व्यावसायिक परिवेश में सुधार के लिए सरकार द्वारा प्रभावी नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है जैसे भूमि अधिग्रहण कानूनों में सुधार, प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में निष्पक्षता, कर्ज़ की लागत को कम करना, विदेशी विनिमय दर में स्थिरता, मुद्रास्फीति को निम्न स्तर पर रखना, व्यापार घाटे पर नियंत्रण, सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों का संवर्धन, टैक्सेशन और औद्योगिक नीतियों का सरलीकरण, मुद्दों को तय सीमा में निपटाना, राज्य सरकारों के साथ बेहतर समन्वय। छोटे और मझले उद्योगों को बढ़ावा देने से रोजगार सृजन में बढ़ोतरी संभव है। बुनियादी ढांचा, श्रम क़ानून और संचालन सुधार जैसे दीर्घकालीन कारकों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

खस्ताहाल सरकारी कंपनियों के प्रबंधन पर कसावट करके उन कंपनियों को सही रास्ते पर लाना होगा। जोखिम प्रबंधन में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है। निजीकरण करना ही समस्या का समाधान नहीं है। सरकार द्वारा आयातित इस्पात पर डंपिंग रोधी शुल्क और आयात शुल्क का युक्तिकरण किया जाना चाहिए। टेक्सटाइल सेक्टर के सभी सेगमेंट्स पर लागू होने वाली एक व्यापक राष्ट्रीय नीति को लागू किए जाने की ज़रूरत है ताकि टेक्सटाइल में निर्यात को बढ़ावा मिल सकें। निर्यात में बढ़ोतरी की जरूरत है जिससे व्यापार घाटे को काम किया जा सके। देश को अन्य एशियाई देशों के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए मजबूत अग्रसारी कदम उठाने होंगे। द्विपक्षीय करारों को मजबूत करने के लिए त्वरित कदम उठाने की जरूरत है। सरकार को निर्यात निति पर पुनर्विचार करना होगा। विदेशी निवेश को बढ़ाने के लिए विदेशी कर्ज और सबसिडी को काबू में रखना होगा। अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए और बेरोजगारी दूर करने के लिए बुनियादी ढाँचे की सूरत बदलना जरूरी है। सरकार के पास अर्थशास्त्रियों और आर्थिक पेशेवरों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। सरकार को देश में अर्थशास्त्रियों और आर्थिक, बैंकिंग पेशेवरों की फौज तैयार करनी होगी तभी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत बेहतर हो पाएगी। प्रधानमंत्री मोदी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और अन्य संबंधित मंत्रियों पर पूर्ण विशवास है कि ये आर्थिक चुनौतियों का सामना करके देश की आर्थिक सेहत के सुधार लिए अतिशीघ्र कदम उठायेंगे।