मोदी सरकार को अपने दूसरे कार्यकाल में बहुत अधिक आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पिछले पांच वर्षों के दौरान आर्थिक वृद्धि 8.2 फीसदी से घटाकर 5.8 फीसदी पर आ गयी है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और खाद्य मूल्य स्फीति नकारात्मक स्थिति में आ गए हैं। पिछले तीन वर्षों में चालू खाते का घाटा 0.6 फीसदी से बढ़कर जीडीपी का 2.06 फीसदी हो चुका है। जीडीपी के अनुपात में पूंजीगत निवेश कम होता जा रहा है। निजी निवेश व्यय में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। निर्यात से आयात अधिक होता जा रहा है। लोगों की क्रय शक्ति कम होती जा रही है जिससे उपभोक्ता उत्पादों, वाहनों की बिक्री भी घटती जा रही है। निजी खपत में गिरावट, निवेश और निर्यात में कमी की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बिगड़ती जा रही है। देश में युवा आबादी अधिक है।
आज देश की वित्तीय प्रणाली 75 फीसदी बैसाखी के सहारे खड़ी है। लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आईएलएफएस) के संकट से सभी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) नकदी संकट से गुजर रही हैं। आईएलएफएस के डिफ़ॉल्ट और एनबीएफसी सेक्टर में आए संकट का असर डेट म्युच्यूअल फंडों पर भी पड़ रहा है। देश में धीरे-धीरे आर्थिक मंदी आ रही है। आर्थिक मंदी से अर्थव्यवस्था की विदेशी भुगतान प्रतिबद्धताएं पूरी नहीं हो सकेंगी जिससे आर्थिक समस्याएँ और बढ़ सकती हैं। यदि नयी सरकार ने सख्ती के साथ त्वरित कदम नहीं उठाए तो आने वाले दिनों में हालात बदतर हो सकते हैं। दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी हमारे देश की आर्थिक चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था बुनियादी संरचनाओं की कमी, अकुशल प्रशासन, बैंकों की खस्ता हालत और बेरोजगारी से जूझ रही है। जीडीपी के 70 फीसदी के बराबर कर्ज, सबसिडी का भारी बोझ जैसी कई चुनौतियां हैं। हर तरह के आर्थिक संकेतों से अब यह साफ़ हो गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् के सदस्य रथिन रॉय ने भी कहा है कि देश की अर्थव्यवस्था गहरे संकट की तरफ जा रही है और आर्थिक मंदी भारतीय अर्थव्यवस्था को घेर लेगी।