विपक्ष की सजगता में लोकतंत्र की सार्थकता


\बात आज़ादी के शुरुआती सालों की है। पंडित जवाहरलाल नेहरू तब देश के प्रधानमंत्री थे और संसद में कांग्रेस पार्टी के सदस्यों का बोलबाला था। उसी दौरान कांग्रेसी सांसदों की एक बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था-चूंकि संख्या की दृष्टि से विपक्ष काफी कमज़ोर है, इसलिए यह ज़रूरी है कि जागरूक कांग्रेसी सांसद विपक्ष की भूमिका भी निभाएं। जनतंत्र में मज़बूत विपक्ष के अभाव में निर्वाचित सरकारें मनमानी कर सकती हैं। नेहरू जी ने अपने कांग्रेसी सदस्यों को सलाह दी थी कि वे सरकार के कामकाज पर नज़र रखें।
उसी दौरान संसदीय प्रणाली में विपक्ष की भूमिका के महत्व को देखते हुए राजा गोपालचारी के नेतृत्व में स्वतंत्र पार्टी का गठन हुआ था। राजाजी ने तब उद्योगपति जे.आर.डी टाटा से आग्रह किया था कि वे नयी पार्टी की आर्थिक मदद करें। तब उन्होंने जे.आर.डी को लिखे पत्र में कहा था-सशक्त विपक्ष के अभाव में जनतांत्रिक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। टाटा ने तब प्रधानमंत्री नेहरू को एक पत्र लिखकर यह बताना ज़रूरी समझा था कि जनतांत्रिक पद्धति की बेहतरी के लिए वे स्वतंत्र पार्टी को भी आर्थिक सहायता देना चाहते हैं। नेहरू जी ने टाटा के इस प्रस्ताव का लिखित में समर्थन किया था और इस बात को रेखांकित किया था कि उन्हें नहीं लगता स्वतंत्र पार्टी का प्रयोग सफल होगा, पर नयी पार्टी को आर्थिक सहयोग देने की टाटा की बात से वे पूर्णतया सहमत हैं। तब नेहरू ने लिखा था-मज़बूत विपक्ष जनतंत्र की सफलता की अहम शर्त है।
देश के पहले प्रधानमंत्री से जुड़े ये दोनों प्रसंग जनतंत्र में विपक्ष की महत्ता को ही प्रतिपादित करते हैं। बिना जागरूक और मज़बूत विपक्ष के इस बात का पूरा खतरा है कि सत्तारूढ़ दल अपनी संख्या-बल की ताकत के नशे में मनमानी करने की कोशिश करे और इस काम में सफल भी हो जाये। इसीलिए ऐसी अपेक्षा की जाती है कि जनतंत्र में मज़बूत सत्तारूढ़ पक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी मज़बूत हो। तभी एक संतुलन बनता है। तभी राष्ट्र के हित सधते हैं। लेकिन कोई ज़रूरी नहीं कि मतदान के परिणाम संसद या विधानसभाओं में सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष का संतुलन बनाने वाले ही हों। आज़ादी के शुरुआती दौर में चुनाव परिणामों का पलड़ा पूरी तरह, या कहना चाहिए कुछ ज़्यादा ही कांग्रेस के पक्ष में झुका रहता था और अब यह पलड़ा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में कुछ ज़्यादा ही झुका हुआ है। यह असंतुलन जनतंत्र की दृष्टि से ठीक नहीं है, पर चूंकि यह जनता का निर्णय है, अत: इसे स्वीकारना ही होगा।
ऐसे में दो बातें ज़रूरी हो जाती हैं : पहली तो यह कि विपक्ष जैसा भी है, जितना भी शक्तिशाली है, सरकार के कामकाज पर नज़र रखने के अपने कर्तव्य का वहन ईमानदारी से करे, और दूसरे यह कि सत्तारूढ़ पक्ष भी जनतांत्रिक मर्यादाओं और मूल्यों के अनुरूप आचरण करे।
सत्रहवीं लोकसभा में सत्तारूढ़ पक्ष भारी बहुमत से जीता है। विपक्ष की स्थिति ऐसी है कि मान्य परंपरा के अनुसार विपक्ष के किसी दल को सदन में विपक्ष के नेता का पद भी नहीं मिल सकता। पिछले सदन में भी स्थिति ऐसी ही थी। तब सबसे बड़े विरोधी दल, कांग्रेस के कुल 44 सदस्य सदन में थे और इस बार यह संख्या 52 है। जबकि सदन में विपक्ष ने नेता-पद के लिए दल-विशेष के 55 सदस्य होने चाहिए। यह सांविधानिक व्यवस्था नहीं है, पर बरसों पहले सदन ने यह तय किया था कि मान्यताप्राप्त विपक्षी दल के लिए ज़रूरी होगा कि उसके सदस्यों की संख्या सदन की कुल संख्या का दस प्रतिशत हो।
सदन में विपक्ष के संख्या-बल की ओर इशारा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को यह आश्वासन दिया है कि वह अपने नंबरों की चिंता छोड़कर अपना योगदान करे। विपक्ष की आवाज़ और चिंताएं सरकार के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। ज्ञातव्य है कि पिछली लोकसभा में नेता विपक्ष के अभाव में कई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाये जा सके थे। इसलिए, यदि सरकार आगे बढ़कर 52 सदस्यों वाली कांग्रेस को आधिकारिक विपक्ष का दर्जा दे देती है तो यह न केवल सदन में सौहार्दपूर्ण वातावरण के लिए बेहतर होगा, बल्कि जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति सरकार की निष्ठा का भी उदाहरण बनेगा। जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि विपक्ष को अपनी सही भूमिका निभाने के लिए अवसर मिले। जहां विपक्ष के लिए भी ज़रूरी है कि वह सिर्फ विरोध के लिए विरोध न करे, वहीं सरकारी पक्ष के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह विपक्ष की असहमतियों को सही संदर्भ में समझे। सदन नारेबाजी और शोरशराबे के लिए नहीं होता, यह बात विपक्ष और सत्तारूढ़ पक्ष, दोनों को समझनी और स्वीकारनी होगी।
इस संदर्भ में देश का अनुभव कुछ अच्छा नहीं है। ज़्यादती किसी भी पक्ष की हो, लेकिन तथ्य यह है कि सदन का बहुत सारा समय व्यर्थ के आरोपों-प्रत्यारोपों और शोरशराबे में बीतता है। हमारे सदनों में काम के आंकड़े शर्मनाक स्थिति का ही संकेत देते हैं। महत्वपूर्ण विषयों पर सार्थक बहस होना अब एक दुर्लभ दृश्य बन गया है। यह एक विडम्बना ही है कि सदन के बजाय अब टी.वी. चैनलों पर हमारे राजनेता बहस करते हैं- और दुर्भाग्य यह भी है कि हमारे मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा विवेक के बजाय टी.आर.पी. से संचालित होता है। यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि मीडिया अपनी निष्पक्षता खोता दिख रहा है।
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने कहा है कि विपक्ष का हर शब्द उनके लिए महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विपक्ष सदन में हर शब्द तोलकर बोलेगा। उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि सत्तारूढ़ पक्ष विपक्ष के शब्दों की ईमानदारी से कद्र करेगा और विपक्ष को गंभीरता से लेने का प्रधानमंत्री का आश्वासन शब्द मात्र नहीं रहेगा। जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका सत्तारूढ़ पक्ष से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। सच तो यह है कि चुनाव में मतदाता सिर्फ सत्तारूढ़ पक्ष को ही नहीं चुनता, विपक्ष को भी चुनता है। हम यह क्यों न मान लें कि मतदाता ने एक पार्टी को या गठबंधन को सत्ता चलाने के लिए चुना है और बाकी पक्षों को सत्तारूढ़ दल पर नज़र रखने के योग्य घोषित किया है। यह पारस्परिक समझ ही जनतंत्र को सार्थक बनाती है। इसी सार्थकता का तकाज़ा है कि विपक्ष को लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त मानने वाली प्रधानमंत्री की बात का आने वाले दिनों में असर भी दिखाई दे। इसके लिए ज़रूरी है सत्तारूढ़ पक्ष, विपक्ष की ईमानदारी पर वैसा ही विश्वास दिखाये जैसा पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने विपक्ष के तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने का काम सौंप कर दिखाया था।


यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज की राजनीति में यह विश्वास विरल होता जा रहा है, पर जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का तकाज़ा है कि सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष, दोनों जनतांत्रिक मर्यादाओं और मूल्यों के अनुरूप काम करें। प्रतिपक्ष की सामर्थ्य और सक्रियता वाली प्रधानमंत्री की बात के प्रति दोनों पक्ष कितनी ईमानदारी दिखाते हैं, देश का हर नागरिक यह जानना चाहेगा।