भारत के रत्न 3 दिसम्बर 1884 से 28 फरवरी 1963

 


शिक्षक से भारत सरकार के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद तक पहुँचने वाले डॉ.राजेन्द्र प्रसाद शिक्षा में जितने तेज थे व्यक्तिगत जीवन में उतने ही सरल थे। भारतीय राजनैतिक इतिहास में उनकी छवि महान और विनम्र राष्ट्रपति की है। अपने निधन के इतने वर्षों बाद भी वे समस्त राजनेताओं के बीच एक आदर्श के रूप में याद किए जाते हैं। वे राष्ट्रपति के रूप में सचमुच भारत के आम आदमी के प्रतिनिधि थे।


                          राजेन्द्रप्रसाद का जन्म बिहार राज्य के एक गाँव जरादेई में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता महादेव सहाय फारसी व संस्कृत के विद्वान थे, जबकि माँ कमलेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की ममतामयी महिला थी। बचपन में इन्हें घर में राजन नाम से पुकारा जाता था। राजन की शिक्षा का प्रारम्भ माँ से सुनी गई रामायण, महाभारत व अन्य कहानियों के रूप में हुआ। शिक्षा का यह प्रथम अध्याय इतना प्रभावकारी सिद्ध हुवा कि सम्पूर्ण जीवन में उसकी छाप दिखाई देती है। प्रारम्भमिक औपचारिक शिक्षाघर पर ही एक मौलवी  द्वारा पूर्ण कराने के बाद इन्हें छपरा के जिला स्कूल में पढ़ने भेजा गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने के लिए राजन ने पटना की घोष अकादमी में दो वर्ष अध्ययन किया। इस परीक्षा में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त करने से राजन की प्रतिभा का परचम लहराने लगा। साथ ही राजन को छात्रवृति भी स्वीकार होगई। राजन आगे के अध्ययन हेतु कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश में  लेने वाले राजन बाबू अपने क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे। इस कारण परिवार की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई मगर राजन  की सादगी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। साथियों ने विदेशी संस्कृति से प्रभावित हो पैन्ट-शर्ट पहनना प्रारम्भ कर दिया मगर राजन धोती-कुर्ता ही सहजता से पहनते रहे। उनके जीवन की अनेक घटनाएं इस बात की गवाह है कि वे अपनी वेश-भूशा के अनुरूप ही बेहद दयालु व निर्मल थे। परम्परागत कायस्थ परिवार से होने के कारण उनका विवाह मात्र 12 वर्ष की आयु में ही राजवंशी देवी से होगया था, फिर भी इनका विवाहिक जीवन दीर्घ व इतना स्नेहपूर्ण रहा कि पत्नी के स्वर्ग सिधारने के कुछ माह बाद ही आप भी उनसे मिलने चले गए। संस्कारवश छूआछूत की भावना भी इनके मन में गहराई से घर कर गई थी। महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने से पूर्व ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य का छूआ भोजन राजेन्द्र बाबू नहीं कर पाते थे।


                    कलकत्ता विश्वविद्यालय में राजन का अध्ययन विषय विज्ञान था। इन्टर परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाएं जाँचने पर इन्हें अत्यन्त सम्मानजनक टिप्पणी मिली कि परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक ज्ञान रखता हैं। विषय पर इतनी पकड़़ होने पर भी राजन बनाम राजेन्द्र प्रसाद ने कला विषय में आगे बढ़ने का निर्णय किया। कलकत्ता के प्रसिद्ध ईडन हिन्दू हॉस्टल में रहते हुए अर्थशास्त्र में ए.एम. की प्रथम श्रेणी की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। अध्ययन के प्रति गम्भीर होने के साथ साथ कॉलेज में सामाजिक गतिविधियों में भी पूर्ण सक्रिय रहे। राजेन्द्रप्रसाद कॉलेज की डॉन समिति के महत्वपूर्ण सदस्य थे। डॉन समिति भारतीय विश्वविद्यालय  आयोग की क्लर्क बनने की शिक्षा देने वाली रिपोर्ट को लागू करने का विरोध करने साथ ही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना भरने का कार्य कर रही थी। राजेन्द्रप्रसाद ने बिहार स्टूडेन्ट कॉनफ्रेन्स के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह विद्यार्थियों का एक अलग प्रकार का संगठन था जिसने बिहार को अनुराग सिन्हा जैसे कई नेता दिए।


                    एम.ए.करने के बाद अध्ययन को विराम देकर राजेन्द्र प्रसाद मुजफ्फरपुर के भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक बन गए। बाद में उस महाविद्यालय के आचार्य भी बना दिए मगर राजेन्द्रप्रसाद एक बार फिर अध्ययन करने कलकत्ता पहुँच गए। स्वर्ण पदक के साथ मास्टर ऑफ लॉ की उपाधि से ही इनका मन नहीं भरा तो लगे हाथ डाक्ट्रेट भी कर ली।  इस बीच  कलकत्ता के सीटी कॉलेज में अर्थशास्त्र का अध्यापन भी करते रहे थे। कानून का अध्ययन पूर्ण होने के साथ ही डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार व उडी़सा उच्च न्यायालय में वकालात प्रारम्भ कर दी। भागलपुर में भी वकालात के प्रकरण लेते रहे।


स्वतन्त्रता आन्दोलन में सहयोग


                     राजेन्प्रसाद कोरी भावुकता के कारण सार्वजनिक जीवन में नहीं आए थे अपितु अपने व परिवार के हितों का ध्यान रख कर ही कदम बढ़ाया था। 1911 में ही भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने के बहुत पूर्व ही गोपालकृष्ण गोखले ने इन्हें सर्वेन्टस ऑफ इण्डिया सोसाइटी से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया था मगर अध्ययन में व्यवधान व घर वालों की परेशानी को ध्यान रख तैयार नहीं हुए। कांग्रेस में सक्रियता भी महात्मा गाँधी से मिलने के बाद ही दिखाई थी। लखनऊ अधिवेशन के समय राजेन्द्रप्रसाद की गाँधी जी मुलाकात हुई थी। जब गाँधी जी चंपारण में वस्तु स्थिति का जायजा लेने पहुँचे तो उनके निर्देशानुसार राजेन्द्रप्रसाद, अनुराग सिन्हा व अन्य स्वयं सेवकों के साथ पहुँचे तथा पूर्ण समर्पण भाव से सहयोग किया। गाँधी के इस सम्पर्क के कारण महात्मा गाँधी के साहस, समर्पण तथा कार्य के प्रति निष्ठा का राजेन्द्रप्रसाद पर जादुई प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव का ही परिणाम था कि जब गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन का आव्हान किया तो राजेन्द्रपसाद ने अपनी अच्छी भली चलती वकालात को छोड़ने के साथ ही पटना विश्वविद्यालय के सम्मान पूर्ण पदों को भी अलविदा कह दी। जब गाँधी जी ने ब्रिटिश शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार करने का आव्हान किया तो राजेन्द्रबाबू ने अपने पुत्र मृत्युंजयप्रसाद को कॉलेज छोड़कर भारतीय शिक्षण पद्धति से चल रहे बिहार विद्यापीठ में अध्ययन करने को कहा था।


                    राजेन्द्रप्रसाद का तीन बार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस अध्यक्ष बनना पार्टी में उनकी स्वीकार्यता का प्रतीक माना जा सकता है। राजेन्द्रप्रसाद कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए थे। महात्मा गाँधी से मतभेद उभरने पर जब सुभाषचन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दिया तो जिम्मेदारी राजेन्द्रप्रसाद को ही सौंपी गई थी। आचार्य जीवतराम कृपलानी के अध्यक्ष पद से हटने पर भी जिम्मेदारी एक बार फिर राजेन्द्रपसाद के कन्धों पर डाली गई। राजेन्द्रप्रसाद ने स्वतन्त्रता के महत्व समझाने हेतु देश का व्यापक दौरा किया था। भारत का संविधान बनाने के लिए बनी संविधान सभा का अध्यक्ष भी राजेन्द्रप्रसाद बनाया गया। पण्डित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अन्तरिम सरकार में खाद्य व कृषि विभाग का मंत्री इन्हें बनाया गया था। देश की स्वतन्त्रता के बाद चुनाव होने पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति भी राजेन्द्रप्रसाद बने। भारत के अब तक के इतिहास में डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ही इस पद पर दूबारा चुने गए तथा लगातार दस वर्ष तक राष्ट्रपति रहे। राजेन्द्रप्रसाद राष्ट्रपति पद को राजनीति से दूर रखने के पक्ष में थे मगर हिन्दूकोड बिल पर सरकार से असहमति होने पर चुप नहीं रहे और राजनैतिक सक्रियता  दिखाई थी। राष्ट्रपति के रूप में अनेक राष्ट्रों की यात्राएं कर उनसे भारत के रिश्ते मजबूत करने में योगदान दिया।


शिक्षा के प्रति समर्पण


                 डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के जीवन को गौर से देखने पर यह स्पष्ट नजर आता है कि उन्होंने वकालात को अर्थ प्राप्ती के लिए ही अपनाया था जबकि वे शिक्षत्व से जीवनभर जुडे़ रहे थे। ए.एम. करने बाद उन्होने आजाविका के लिए शिक्षक व्यवसाय को ही अपनाया था। कानून की पढ़ाई के साथ ही उन्होंने शिक्षक बन पढ़ाना स्वीकार किया। शिक्षा में अभिरुचि होने के कारण ही पटना राजेन्द्रप्रसाद विश्वविद्यालय में सिनेट व सिंडिकेट के महत्वपूर्ण पदों का दायित्प निभाना स्वीकार किया। पटना विद्यापीठ, जो आज एक विश्वविद्यालय है, की स्थापना डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने महात्मा गांधी व मौलाना मजरुल हक के साथ मिल कर करी थी। राजेन्द्रप्रसाद कई वर्ष तक उसके उपकुलपति भी रहे। पटना में रहते हुए पटना विद्यापीठ का प्रागण ही डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की सभी गतिविधियों का केन्द्र रहा। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय इनकी गिरफ्तारी भी विद्यापीठ के कार्यालय सदाकत आश्रम से ही हुई थी। संविधान सभा व मंत्री का दायित्व निभाने के लिए दिल्ली में रहने जाने पूर्व तक आप विद्यापीठ के एक कच्चे मकान में ही निवास करते रहे थे। राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत होने पर भी आप पटना लौट कर बिहार विद्यापीठ के प्रागंण में सदाकत आश्रम में निवास करना पसन्द किया था, वहीं जीवन की अन्तिम श्वास ली।


          डॉ. राजेन्द्रप्रसाद को हिन्दी की साहित्यिक गतिविधियों में भी रूचि थी। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नागपुर सम्मेलन की अध्ययता भी की। पुरुषोतमदास टण्डन को अभिनंदन ग्रन्थ डॉ. राजेन्द्रप्रसाद द्वारा ही भेंट किया गया था। अंग्रेजी समाचार पत्र सर्चलाइट व हिन्दी साप्ताहिक देश का प्रकाशन भी किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान राजेन्द्रप्रसाद बहुमुखि प्रतिभा के धनी अनेक भाषाओं के ज्ञाता महान साहित्यकार राहुल सांस्कृतयायन के सम्पर्क में आए। दोनों एक दूसरे से बहुत प्रभावित हुए। बंगाल बिहार बाढ़ हो या क्वेटा का भूकम्प, संकट के समय विपदाग्रस्त देशवासियों की हर सम्भव सहायता करने में  राजेन्द्रप्रसाद सदैव आगे रहे। जैल जाते समय भी अपने दायित्व को नहीं भूले तथा अपने मित्र अनुराग नारायण सिन्हा को सहायता कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी थी। देश के प्रति त्याग की भावना जीवन के अन्तिम छोर तक बनी रही। देश पर हुए चीनी आक्रमण के समय आर्थिक सहयोग हेतु देश वासियों से स्वर्णदान करने का आव्हान किया गया तो डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने अपनी स्वर्गीय पत्नी के सभी गहने दान में दे दिए।


                  डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की लोक प्रियता का अन्दाज इस बात से भी लगया जासकता है कि राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत होने पर इनका विदाई समारोह ससंद भवन या राष्ट्रपति भवन में नहीं होकर रामलीला मैदान में हुआ था। कई विश्वविद्यालयों द्वारा आपको डॉक्टर ऑफ लॉ की मानद उपाधि देने के साथ ही देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया।