पराली के प्रदूषण पर चिंता जायज

भारत में तेजी से बढ़ते प्रदूषण को लेकर फिर से जो रिपोर्ट आ रही हैं, उनसे साफ है कि अगर हम समय रहते नहीं चेते तो आने वाले दिनों में हालात और भयावह होंगे। पहली खबर तो पराली को लेकर आई है। अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति और शोध संस्थान ने एक अध्ययन में यह बताया है कि उत्तर भारत का ज्यादातर हिस्सा तीन-चार महीने जिस तरह पराली के धुएं में लिपटा रहता है, वह कैसे लोगों को मौत की ओर धकेल रहा है। इसका आर्थिक पहलू भी कम चिंताजनक नहीं है। पता चला है कि पराली जलाने से देश की अर्थव्यवस्था को हर साल दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। इसी तरह पटाखों के प्रदूषण से पचास हजार करोड़ रुपए प्रति साल की चपत लग जाती है। यानी भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल ढाई लाख करोड़ रुपए का नुकसान प्रदूषण की वजह से उठाना पड़ रहा है, लेकिन इतना सब कुछ होने और चेतावनियां मिलने के बाद भी वायु प्रदूषण से निपटने में हमारी सरकारें नाकाम साबित हो रही हैं। रिपोर्ट बता रही हैं कि दिल्ली के वायु प्रदूषण में 39 फीसद धुआं वाहनों का एवं 22 फीसद औद्योगिक इकाइयों का होता है। इसके अलावा, 18 फीसद हूवा के साथ आने वाली धूल प्रदूषण को बढ़ाती है। पिछले साल तो दो दिन के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में उद्योगों को बंद करने जैसा कदम उठाना पड़ा था। जाहिर है, जब हालात बेकाबू होने लगते हैं तब ही सरकार और उसकी एजेंसियों की नींद खुलती है। दिल्ली और इससे सटे इलाकों-नोएडा, गाजियाबाद और फरीदाबाद में हजारों की तादाद में औद्योगिक इकाइयां चल रही हैं। इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि ज्यादातर छोटे उद्योग रिहाइशी इलाकों में चल रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर दो दिन या हफ्ते भर उद्योगों को बंद कर भी दिया जाए तो इससे कितना प्रदूषण कम होने वाला है। वायु प्रदूषण का बड़ा कारण पुराने वाहन भी हैं। लाखों की संख्या में ऐसे वाहन दौड़ रहे हैं जिनकी अवधि खत्म हो चुकी है। इनमें भी डीजल वाहनों की तादाद काफी ज्यादा है। इन वाहनों से निकलने वाला धुआं सबसे ज्यादा जहरीले कण पीएम 2.5 उत्सर्जित करता है। ये कण फेफड़ों को संक्रमित करते हैं और दिल का दौरा, मस्तिष्काघात और कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनते हैं। एक शोध से यह सामने आया है कि अगर पीएम 2.5 के स्तर को दस माइक्रोग्राम प्रति वर्ग घन मीटर रखा जाए तो साठसे 85 साल के लोगों की औसत आयु पर बढ़ते खतरे को टाला जा सकता है, लेकिन सरकार पुराने वाहनों को सड़कों से हटा पाने में लाचार साबित हुई है। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार सख्त लहजे में केंद्र, राज्य सरकारों, संबंधित एजेंसियों और पर्यावरण मंत्रालय को चेताया है। लेकिन आज तक असर नहीं दिखा है। हालांकि पिछले साल पराली जलाने से रोकने के लिए पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने कदम उठाए, लेकिन इनका कोई ठोस नतीजा सामने आता नहीं दिखा। सरकारों के पास इस समस्या से निपटने के लिए ठोस योजनाओं का नितांत अभाव दिखता है। समस्या तब बढ़ती है जब संबंधित महकमे ठीक से जिम्मेदारी नहीं निभाते। इसलिए शीर्ष अदालत ने ऐसे महकमों के अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की भी चेतावनी दी थी। प्रदूषण से निपट पाने में हम लाचार इसलिए भी हो रहे हैं कि यह हमारी सरकारों की प्राथमिकता में नहीं है। इसके अलावा, इच्छाशक्ति की भी कमी है। विडंबना यह है कि इन तथ्यों के जगजाहिर होने के बावजूद वायु प्रदूषण हर साल लाखों लोगों की मौत का कारण बन रहा है और हम चेत नहीं रहे हैं। पराली न जलाने और पर्यावरण बचाने के लिए जारी विज्ञापनों पर अब तक 19 करोड़ रुपए सरकार ने खर्च कर दिए हैं। इतनी कम से पराली नष्ट करने वाली सैकड़ों मशीनें खरीदी जा सकती थीं। पंजाब में किसानों ने साफ कह दिया है कि वे खेतों में पराली जलाएंगे, क्योंकि इसे नष्ट करने के दूसरे तरीकों पर प्रति एकड़ तीन से चार हजार रुपए का खर्च आ रहा है। किसानों ने पराली जलाने को रोकने के लिए धान पर दो सौ रुपए प्रति क्विंटल बोनस की मांग की है। पंजाब सरकार ने किसानों की मांग केंद्र को बता दी है। पंजाब सरकार प्रति क्विंटल कम से कम सौ रुपए बोनस मांग रही है। हकीकत यह है कि सरकार और किसानों के पास इतनी मशीनें भी नहीं हैं कि बीस दिनों में दो करोड़ टन पराली को नष्ट कर दें। यह समस्या इसलिए हैक्योंकि पराली नष्ट करने को लेकर अपनाई गई सरकार की नीतियों में भारी खामियां हैं। पराली नष्ट करने के लिए उपलब्ध मशीनों को अगर पूरे राज्य में इस्तेमाल भी किया जाए तो गेहूं की बिजाई के समय तक मात्र बीस फीसद पराली नष्ट हो पाएगी। ऐसे में किसानों के पास पराली जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सीमांत किसानों का तर्क है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का आदेश था कि छोटे किसानों को मशीन मुफ्त में दी जाए। लेकिन सरकार सब्सिडी दे रही है। उनके पास मशीन खरीदने के लिए बाकी के पैसे नहीं हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण को अगर सरकार रोकना चाहती है तो इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति अपनानी होगी। फसली विविधता को बढ़ा कर पंजाब और हरियाणा से धान की खेती को धीरे-धीरे कम करना होगा, ताकि भूजल स्तर भी बचा रहे और पूरे उत्तर भारत को प्रदूषण से बचाया जा सके। पंजाब के कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिक भी यही तर्क दे रहे हैं। फिर देश की जरूरत के हिसाब से बाकी राज्यों में धान की खेती को बढ़ावा देना होगा। वैज्ञानिकों का तर्क है कि किसानों पर जुर्माना लगाना उत्तर भारत के वायु और जल के बचाव का स्थायी समाधान नहीं है। किसानों पर जुर्माने से हल नहीं निकल सकेगा। इसका स्थायी समाधान खोजना होगा, तभी देश को प्रदूषण से निजात मिल पाएगी। दिल्ली की हवा जहरीले स्तर तक प्रदूषित हो रही है। देश के हर बड़े और बढ़ते शहर की स्थिति यही है और ऐसा कई वर्षों से हो रहा है। संबंधित सरकारें हर बार अक्टूबर और अप्रैल में वादे करती हैं कि बस, अब आगे से सब ठीक हो जाएगा। किसानों को धान और गेहूं की फसल की कटाई के बाद बचे हुए डंठलों यानी पराली को जलाना नहीं पड़ेगा। इसे काट कर अन्य उपयोग में लाने के लिए व्यवस्था सर्व-उपलब्ध होंगी व किसानों को इससे आमदनी होने लगेगी। सुन कर कितना सुकून मिलता है! जब धान और गेहूं की फसलों की कटाई हाथों से होती थी, तब फसल जड़ के पास से काटी जाती थी। अनाज निकालने के बाद पराली के अन्य कई उपयोग किसान स्वयं करता थाअब हाथ से कटाई के लिए मजदूर नहीं मिलते हैं और मशीन से फसल की कटाई सस्ती पड़ती है। कटाई की मशीनें केवल ऊपर से काटती हैं, पूरा डंठल छोड़ देती हैं। पराली के परंपरागत उपयोग किसान जानता है। वह अब यह भी जानता है कि उसे खेत ही में दबा कर खाद के रूप में उपयोग हो सकता है। हवा और पानी के लगातार बढ़ते प्रदूषण में सरकारी तंत्र की असफलता के परिणाम हर तरफ दिखाई देते हैं।