वर्ष 2019 के आम चुनाव में वैसे देखा जाये तो न सत्तापक्ष और न विपक्ष के पास कोई बुनियादी मुद्दा हो। यह मुद्दााविहीन चुनाव है जो लोकतंत्र के लिये एक चिन्ताजनक स्थिति है। बावजूद इसके एक अहम मुद्दा होना चाहिए कि हमारे जनप्रतिनिधि इतने जल्दी अमीर कैसे हो जाते हैं ? अधिकांश जनप्रतिनिधि संसद का प्रतिनिधित्व करते हुए किसी व्यापार, उद्योग एवं लाभ कमाने वाली ईकाई से सीधे नहीं जुड़े होते हैं, फिर उनकी धन-सम्पत्ति इतनी तेजी से कैसे बढ़ जाती है ? यह विरोधाभास नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां का वोट देने वाला आम मतदाता दिन-प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है, जबकि गरीब वोटरों के वोटों से जीतने वाला जनप्रतिनिधि तेजी से अमीर बनता जा रहा है। लोकतंत्र में संसद और विधानसभा देश की जनता का आईना होती हैं। अब राजनीति सेवा नहीं पैसा कमाने का जरिया बन गई है। आज लाभ के इस धन्धे में नेता करोड़पति बन रहे हैं। राजनीति में यह समृद्धि यूं ही नहीं आई है, इसके पीछे किसी-न-किसी का शोषण और कहीं-न-कहीं बेईमानी जरूर होती है। यदि गंभीरता से आकलन किया जाये तो बस यही घोटालों एवं भ्रष्टाचार की जड़ है, जो राष्ट्रीय लज्जा का ऊंचा कुतुबमीनार है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। कितना अच्छा होता कि आरोप-प्रत्यारोप या एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जगह राष्ट्र को मजबूत बनाने की बात होती, आमजनता के दुःख एवं परेशानियों को दूर करने का कोई ठोस एजेंडा प्रस्तुत होता। सच जब अच्छे काम के साथ बाहर आता है तब गूंगा होता है और बुरे काम के साथ बाहर आता है तब वह चीखता है। ऐसा ही लगा जब भाजपा ने राहुल गांधी की संपत्ति को लेकर उन पर जो आरोप लगाए। इस आरोप में उनकी सत्यता पर कुछ कहना कठिन है, लेकिन यह बात हैरान तो करती ही है कि 2004 में 55 लाख की जमीन-जायदाद के मालिक 2014 में नौ करोड़ की संपदा के स्वामी कैसे हो गए ? यह सवाल इसलिए और चकित करता है, क्योंकि सब जानते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष न तो कोई कारोबारी हैं और न ही डॉक्टर या वकील। पता नहीं भाजपा की ओर से जो सवाल उछाला गया उसका कोई संतोषजनक जवाब मिलेगा या नहीं, लेकिन ऐसे जवाब केवल राहुल गांधी से ही अपेक्षित नहीं हैं।
आज भाजपा एवं राजनीतिक दलों में ऐसे अनेक जनप्रतिनिधि हैं, जो इस तरह के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। राजनीतिज्ञ आज आवश्यक बुराई हो गये हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के उस दृढ़ कथन को कि भ्रष्टाचार विश्व जीवनशैली का अंग बन गया है, को दफना देना चाहिए। यह सच है कि आज हमारे अधिकांश कर्णधार सोये हुए हैं, पर सौभाग्य है कि एक-दो सजग भी हैं। न खाऊंगा और न खाने दूंगा की तर्ज पर उन्होंने पांच साल में एक भी आरोप न तो स्वयं पर नहीं लगने दिया और न अपनी सरकार पर। चौकीदार को चोर कहने वाले कोरा आरोप लगा रहे हैं, एक भी पुख्ता प्रमाण चोरी का प्रस्तुत नहीं कर पाएं हैं। ''सब चोर हैं'' के राष्ट्रीय मूड में असली पराजित न राहुल हैं, न मोदी हैं बल्कि मतदाता नागरिक है। अगर यह सब आग इसलिए लगाई गई कि इससे राजनीति की रोटियां सेकीं जा सकें तो वे शायद नहीं जानते कि रोटियां सेकना जनता भी जानती है। आग लगाने वाले यह नहीं जानते की इससे क्या-क्या जलेगा ? फायर ब्रिगेड भी बचेगी या नहीं ? यह सब मात्र भ्रष्टाचार ही नहीं, यह राजनीति की पूरी प्रक्रिया का अपराधीकरण है। और हर अपराध अपनी कोई न कोई निशानी छोड़ जाता है। राहुल गांधी पर लगा आरोप भी ऐसी ही निशानी का प्रस्तुतीकरण है।
आम राय बन चली है कि राजनीति अब मिशन नहीं, व्यवसाय बन गया है। सचमुच सम्मानजनक पेशे की बजाए, मोटा मुनाफा कमाने वाला व्यवसाय बन गया है। खुद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि अगर ऊपर से एक रुपया जनता के लिए चलता है तो नीचे आम आदमी तक सिर्फ 15 पैसा ही पहुंच पाता है। इसमें से कितने पैसे राजनीति में लगे लोगों तक पहुंचते हैं और कितना सहयोगी अफसरों की जेब में जाता होगा, इसे समझने के लिए किसी स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत नहीं है। बढ़ते भ्रष्टाचार के अलावा परेशानी यह भी है कि लोकतंत्र किसी को भी राजनीति में आगे बढ़ने और लोगों की रहनुमाई का अधिकार देता है, लेकिन पैसे का खेल बन गई राजनीति उन लोगों को आगे बढ़ने से रोकती है, जिन पर लक्ष्मी की कृपा नहीं हुई।