कश्‍मीर की सियासत में निर्णायक‍ हो सकते हैं कश्‍मीरी पंडित,यहां अहम हैं ये मतदाता


जम्मू। घाटी में पाक परस्‍त आतंकियों ने तीन दशक पहले ऐसा खूनी खेल खेला कि उसका दंश आज भी हजारों परिवार झेल रहे हैं। करीब चार लाख लोगों को घर व संपत्ति सब छाेड़कर भागना पड़ा। तब से लालचौक से लेकर सुदूर दक्षिण भारत के चेन्नई तक की सियासत में कश्मीरी पंडितों का जिक्र अवश्‍य होता है।


राष्ट्रीय दलों व क्षेत्रीय दलों के एजेंडे में उनकी कश्मीर वापसी और पुनर्वास का मुद्दा शामिल होता है। इसके बावजूद विस्थापित कश्मीरी पंडित और उनके मुद्दे हाशिए पर हैं। भले ही उन्‍हें मतदान का अधिकार दिया गया है लेकिन पेचिदगियाें ने इस अधिकार को अधिक प्रभावी नहीं होने दिया।


घाटी की तीन लोकसभा सीटों पर विस्थापित कश्मीरी पंडितों के 10,4031 वोट हैं। यह सभी ट्रांजिट मतदान केंद्र पर या फिर पोस्टल बैलेट के जरिए मतदान करते हैं। तकनीकी और व्‍यावहारिक दिक्‍कतों के कारण 4 से 5 फीसद कश्मीर पंडित ही मताधिकार का इस्‍तेमाल कर पाते हैं। ऐसे में यह अधिक प्रभावी नहीं रहते। इस बार तकनीकी दिक्‍कतों का कुछ समाधान किया गया है और मतदान के लिए आवेदन की व्‍यवस्‍था चुनाव आयोग ने ऑनलाइन की है। चुनाव आयोग और सामाजिक संस्‍थाएं थोड़ा सजग रहें और उनकी चिंताओं का समाधान हो तो मतदान फीसद में काफी सुधार हो सकता है और यह खासकर कश्‍मीर की श्रीनगर व अनंतनाग सीट पर काफी प्रभावी भूमिका अदा कर सकते हैं। खासकर घाटी में कम मतदान की स्थिति में यह वोट काफी महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं। इन दोनों सीटों पर ही सबसे ज्यादा करीब 80 हजार विस्थापित पंडित मतादाता हैं जबकि बारामुला -कुपवाड़ा संसदीय सीट पर 24 हजार। 


कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार आसिफ कुरैशी ने कहा कि वर्ष 1989 के पहले के हालात अलग थे। अगर यह कहें कि उस समय वोटरों के गिनती और मतदान के प्रतिशत में वह कहीं भी पूरी तरह निर्णायक नहीं थे, लेकिन आतंकी हिंसा के दौर में कश्मीर में जिस तरह से चुनाव बहिष्कार होता रहा है, विस्थापित पंडित सभी उम्मीदवारों के लिए अहम रहे हैं। हर दल का नेता और उम्मीदवार जम्मू, ऊधमपुर, दिल्ली में जहां भी विस्थापित कश्मीरी वोटर होते हैं, चक्कर लगाने जाता है। विस्थापित कश्मीरी वोटर फिर भी निर्णायक साबित नहीं हो रहा है, क्योंकि उसका मतदान प्रतिशत भी काफी कम रहता है। कई बार इससे भी बहुत कम और वह अलग अलग प्रत्याशियों के समर्थन में होता है।


 


पनुन कश्मीर के डॉ. अजय चुरुंगु ने कहा पहली बात तो यह है विस्थापितों की कॉलोनियां में क्या कभी प्रशासन ने विस्थापित कश्मीरी मतदाताओं के नाम दर्ज करने का कोई अभियान चलाया है। जवाब है नहीं। विस्थापित पंडितों के वोट ही बनाने से संबंधित अधिकारी कतराते हैं। इतनी औपचारिकताएं हैं कि पूछो मत। अगर वोट बनवा लिया जाता है तो फिर मतदान के समय मतदान से कई लोग सिर्फ नाम की स्पेलिंग गलत होने के कारण मतदान नहीं कर पाते तो कइयों के मां-बाप का नाम गलत लिखा होता है। अगर श्रीनगर की रहने वाली किसी विस्थापित कश्मीरी पंडित लड़की की शादी बारामुला के लड़के से हो गई है तो उसका वोट वहां स्थानांतरित नहीं हो पाता है और वह वोट से वंचित होती है। हमारे कई कश्मीरी पंडित लड़कों ने पंजाब, दिल्ली में शादी की है। वह अपनी पत्नियों के नाम अपने मूल जिले में दर्ज कराना चाहते हैं, नहीं करा पा रहे हैं। इससे राज्य प्रशासन की भूमिका ही सबसे ज्यादा नकारात्मक है। मुझे यह कहने में कोई परहेज नहीं है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों को सुनियोजित तरीके से मतदाता सूचियों से निकाला जा रहा है, उन्हें मतदान के अधिकार से दूर रखा जा रहा है और उन्हें अन्य राज्यों व शहरों में मतदाता बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है ताकि वह कश्मीर पर अपना हक न जता सकें।


यह कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को दूर रखने की साजिश का ही एक हिस्सा है, क्योंकि कश्मीरी पंडितों का ज्यादा संख्या में मतदान के लिए निकलना कश्मीर में इसलाम और अलगाववाद के नाम पर वोटों की सियासत करने वालो के लिए भारी है। उन्होंने कहा कि नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी बेशक धर्मनिरपेक्षता और कश्मीरी पंडितों के साथ भाईचारे का नारा देती हैं। लेकिन क्या इन्होंने बीते 30 सालों में किसी पंडित को लोकसभा चुनावों के दौरान कश्मीर में अपना उम्मीदवार बनाया है। यह दल जानते हैं ऐसा करने का मतलब विस्थापित कश्मीरी मतदाताओं की अहमियत बढ़ाने के समान है। जो उनके एजेंडे के खिलाफ है। वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीरी मामलों के जानकार अनिल भट्ट कहते हैं कि मैं कुलगाम का रहने वाला हूं। मेरा वोट आज भी वहीं पर हैं। ऐसे में मेरा वोट स्वत: अनंतनाग संसदीय क्षेत्र के लिए जम्मू में विस्थापित मतदान केंद्र के लिए स्थानांतरित होना चाहिए। यह तब तक नहीं होगा जब तक मैं एम-फार्म नहीं भरूंगा। इसके साथ ही मुझे 12सी फार्म भी भरना है। एम-फार्म के जरिए मैं मतदान में हिस्सा लेने की इच्छा जताता हूं और दूसरा फार्म इसलिए कि मैं मतदान केंद्र में मतदान करुंगा या पोस्टल बैलेट के जरिए। यह साजिश भी है, कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में एक सियासी आवाज बनने से रोकने के लिए। मैं एम फार्म नहीं भरूंगा तो मतदाता सूची में मेरा नाम नहीं होगा और दूसरा फार्म नहीं भरुंगा तो यह पता नही चलेगा कि मतदान का अधिकार है या नहीं। आप ही बताइए कि क्या किसी अन्य समुदाय के लोगों के साथ ऐसा है। उनके नाम तो सूचियों में रहते हैं, हमारे ही समुदाय के लोगों के नाम सूचियों से क्यों गायब हो रहे हैं। यह एम फार्म और 12 सी फार्म कश्मीरी पंडितों को मतदान का अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि उन्हें इससे रोकने का ही काम करता है।


आल पार्टी माइग्रेंट कोआर्डिनेंशन कमेटी के चेयरमैन विनोद पंडित ने कहा कि अब कश्मीरी पंडित समुदाय को समझ आ चुका है कि जिस तरह दूध में से मक्खी को निकाला जाता है,उसी तरह एम फार्म और 12सी फार्म के नाम पर विस्थापित कश्मीरी पंडितों को मतदाता सूचियों से निकाला जा रहा है। यह मतदान का अधिकार देने के लिए नहीं है,मतदान से रोकने के लिए है। इसलिए हम कश्मीरी पंडितों के लिए वादी की 46 विधानसभा सीटों में से कम से तीन को पंडित समुदाय के लिएआरक्षित करने की मांग कर रहे हैं। कश्मीरी पंडित समुदाय से सिर्फ पीएल हांडु ही एकमात्र ऐसे नेता हैं,जिन्हें दिल्ली में संसद भवन में कश्मीर के किसी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला हो। यह सांसद थे स्व पीएल हांडु। वह वर्ष 1989 में नेशनल कांफ्रेंस के टिकट पर अनंतनाग से चुनाव जीते थे। उनके अलावा न कभी किसी बड़े राजनीतिक दल ने न कभी भी किसी अन्य कश्मीरी पंडित उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। भाजपा इसमें अपवाद रही है लेकिन भाजपा उम्मीदवार कभी घाटी में चुनाव नहीं जीत पाया है,क्योंकि उसे कभी भी अपने पूरे समुदाय से या फिर अपने इलाके में रहने वाले गैर मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला।


 


श्रीनगर सीट पर 2017 के उपचुनाव में मतदान सात फीसद के आसपास सिमट गया था। ऐसे में फारूक अब्‍दुल्‍ला करीब 10 हजार से अधिक मतों से जीत गए। इस सीट पर करीब 40 हजार कश्‍मीरी पंडितों के वोट हैं। उनका मतदान कई तरह के समीकरण बदलने की क्षमता रखता है। इसी तरह अनंतनाग सीट पर भी कश्‍मीरी पंडित निर्णाय‍क स्थिति में हैं। वहां भी जीत हार का अंतर काफी कम रहता है। जम्मू, उधमपुर और दिल्ली में बनाए गए रिलीफ कैंप में रह रहे कश्मीरी विस्थापित मतदाताओं के लिए विशेष मतदान केंद्र बनाए गए हैं। वे इन मतदान केंद्रों में आकर अथवा पोस्टल बैलेट के जरिए अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए कश्मीर के विस्थापित मतदाताओं को एम-फार्म अथवा 12-सी फार्म भरकर स्वयं उपस्थित होकर निर्वाचन निबंधन पदाधिकारी को उपलब्ध कराना होगा। निर्वाचन निबंधन पदाधिकारी उनके आवेदन तथा पता की जांच करेंगे तथा संबंधित मतदाता के आवेदन को कश्मीर की संबंधित मतदाता सूची, जहां उसका नाम दर्ज है से मिलान करेंगे।


इस बार एम फार्म और 12-सी फार्म वह ऑनलाइन जमा करवा सकेंगे। इससे उनका काफी समय और परेशानी बचेगी। क्‍या चुनाव आयोग कश्‍मीरी पंडितों को मतदान के लिए प्रेरित कर पाएगा, यह सबसे बड़ी चुनौती है।